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मथो / अज्ञेय
Kavita Kosh से
यह अन्तर मन
यह बाहर मन
यह बीच कलह की
-नहीं, जड़ नहीं!-मथानी।
मथो, मथो, ओ मनो मथो
इस होने के सागर को
जो बँट चला आज
देवों-असुरों के बीच!
अब लो निकाल जो निकले
गागर-भर!
आवे जब तर तै कर लेना
क्या निकला यह?
अमृत? हलाहल?
हाइडेलबर्ग, 31 जनवरी, 1976