मधुमिता / रंजना जायसवाल
क्या सच ही नाम और पैसे के लिए जुड़ी थी तुम
अपने हत्यारे से
या फिर प्रेम करती थी
प्रेम, जो खड़ा रहा है हमेशा कटघरे में
तुम तो वीर रस में सनी-पगी थी मधुमिता
फिर क्यों-कर स्वीकार सकी
सर्वस्व लुटाकर भी रखैल का दर्जा
भेड़ियों से बचने के लिए
भेड़िये की मदद लेना
बुद्धिमानी नहीं थी तुम्हारी
पुरुष इतना जरूरी तो नहीं कि
मिटा दिया जाए
अपना अस्तित्व
तुम क्या सचमुच नहीं जानती थी
कि चालाक स्त्रियाँ ऐसा नहीं करतीं
मर्दों की तरह वे भी सबूत नहीं छोड़ती
तुम क्यों नहीं हासिल कर पायी अपना ‘हक’
कहीं ‘हक’ चाहना ही तो नहीं बन गया
तुम्हारा काल
इस देश में लाखों-लाख मधुमिताएँ हैं
जो अक्सर कर लेती हैं आत्मघात
या आत्मघाती समझौते
तुम्हारे जीवन की हिमाकत तो
नहीं बन गयी सजा
तुम्हारा प्रेम व्यभिचार था
और तुम पतिता
कह रहा है पूरा समाज
कितने-कितने सबूत निकल आये हैं
तुम्हारे चरित्र के खिलाफ़
जिनकी हवा भी नहीं थी तुम्हारे जीते-जी
हत्या के बाद चरित्र की हत्या
वह भी बार-बार
क्या सच ही इतना अक्षम्य था
तुम्हारा अपराध मधुमिता?