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मध्यमवर्गीय ओट / कुमार अंबुज
Kavita Kosh से
हमारे वर्तमान के टीले के पीछे है अभी भी वह समय
जब बहुत कम थीं घर में चीजें
और कहीं कोई कमी नहीं लगती थी
फिर तेजी से बदलते रहे चीजों के अर्थ
नए-नए मिलने वालों
और गरिष्ठ होते एक निजी संसार में
देखते हुए नए सामान
भूलते हुए बचपन
लगता है पीछे छूट गई है प्रत्यक्ष गरीबी
(जैसे सबसे पहले छूटता है साइकिल चलाना)
उधर लगभग एक-सा ही चला आता है दुनिया में
भूख और गरीबी का जीवन
बढ़ाता हुआ रोज अपना आकार
ओझल होता उन लोगों की निगाह से
जिन्होंने अभी-अभी पीछे छोड़ी है एक मटमैली दुनिया
थोड़ी-सी ही संपन्नता की ओट में
छिप जाता है
एक विशाल रोता-कलपता
दुःख भरा संसार।