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मन! तू काहे भटकत है रे / स्वामी सनातनदेव

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राग भैरव, झूमरा 15.9.1974

मन! तू काहे भटकत है रे!
प्रीति पियूष त्यागि तू पामर! विषय गरल क्यों गटकत है रे!
मनमोहनसों नेह न करि तू, धन-जन में क्यों लटकत है रे!
अपने निज स्वरूपकों भूल्यौ, तनकी तृस्ना वरधत है रे!॥1॥
ममता की माया में मोह्यौ, समता काहे न समझत है रे!
प्रीतम की मृदिमा न रसत सठ! असन-वसनकों ललचत है रे!॥2॥
रोष-दोष में रहत निरत नित अपनो दोष न खटकत है रे!।
पर-उपदेस कुसल जग जानत, अपनी भूल न पकरत है रे!॥3॥
रमा-रमन में रमत न काहे, विषय-व्याल गल लटकत है रे!।
ग्यान-ध्यान को भान न नैंकहुँ, मान-शान में अटकत है रे!॥4॥
संत सरन को सुख परिहरि खल! खल दल के संग भटकत है रे!
भजन भाव को दुरलभ धन तजि कौड़िनकों सिर पटकत है रे!॥5॥
कहँ लगि कहौं मूढता तेरी, समुझाये नहिं समुझत है रे!
कृपानाथ ने करी कृपा, पै तू उलटो पथ पकरत है रे!॥6॥