मनमोहन और दानव से युद्ध / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
सुनहु कहों कछु आगिल वाता। सो न चले जो रच्यो विधाता॥
दैत्य एक रहु सिन्धु के पारा। करै सो जन चीरी आहारा॥
तासु समीप कोई नहि जाई। पावे जाहि ताहि धरि खाई॥
देखि कुंअर को देत्य विचारा। ले आयउ विधि मोर अहारा॥
अतिशय प्रवल देह असमाना। अन जानत सो आय तलाना॥
विश्राम:-
देखत ही हर्षित भयउ, मनमैह करै विचार।
आज तृप्त तन होइहों, सहजहिं मिलो अहार॥113॥
चौपाई:-
पग पग प्रगट निकट चलि आई। वदन पसारु वेगितंह जाई॥
जान कुंअर दुर्जन ढिग आई। जो भागों तो कुलहिं लजाई॥
करयो युद्ध वहि दानव साथा।...
जेहि जयपत्र देय विधि आजू। सुयश दुंदुभी दुहुदिशि वाजू॥
मोकैह दंत आज जो र्भा। प्राणमती पथ प्राण गंवाई॥
विश्राम:-
मोहि नहि हे कछु जीव डर, सुनु मैना चित लाय।
प्राणमती के कारने, मेरो प्राण न जाय॥114॥
चौपाई:-
जागो कुंअर धरै जनि तोही। घाव कवन विधि घालो वोही॥
चेतन हवै वल प्रवल सम्हारा। भिरे दंत औ राजकुमारा॥
दानव कहे भव्छ तें मोरा। मोहि कस दाव दिखावसि बौरा॥
कुंअर कहयो दरे कर आसा। दधि दोखे जनि खाहु कपासा॥
समुझि देखु मन कुटिल गंवारा। तू नहि मो कंह जीतन हारा॥
विश्राम:-
विश्वम्भर विश्वास जो, दंत न जीते पार।
निश्चय भव गति पाइहे, चलन चहत यम द्वार॥115॥
चौपाई:-
चरि पहर तंह भयउ अखारा। एक न परै एक परकारा॥
दानव शोर करै घहराई। सब जानै दानव रिसियाई॥
सुनि के चहुं दिशि लोग सकाना। करहि कवन गति होय विहाना॥
अन्त कुंअर कीन्हेउ एक दाऊ। औचक आयउ दानव चाऊ॥
गिरे पुहुमि पर भौ विकरारा। गर चापो दे लात कुमारा॥
विश्राम:-
नयन टकाटक लगेऊ, प्राण गये तजि गेह।
मैना मन आनन्द भौ, धरनी मिटयो संदेह॥116॥