मनमोहन की चलने को उत्सुकता / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
कहयो कुंअरसुनु पांख पियारी। तम मन करिय तोह वलिहारी।।
तुम तो प्रियतम पर उपकारी। तेहिते यह चिन्ता चित भारी।।
अवर कहां लगि अस्तुति कीजै। जीवन जन्म निछावर दीजै।।
प्राणमती को दर्शन कीजै। अब मैना कोउ यतन करी जै।।
हमारी प्रीति सह्यो दुखभारी। अव मोहि पंथ दिखावहु सारी।।
विश्राम:-
चलहु मोहि निज साथ ले, इतना तुव शिरभार।
सो कंसेहु नहि मेटि हे, जो विधि लिखा लिलार।।58।।
चौपाई:-
सुनु मैना तें मोरि गोसाई। अब जनि विलैव करहु यहि ठांई।।
जो विधना रचि राख मेराऊ। तो वाजे जग सुयश वधाऊ।।
जो यहि मारग जीव गंवइहे। तोहि जियके यम निकट ऐहे।।
अव मोहि छिनु एक रहो न जाई। कहु सोई जो आव वड़ाइ।।
जेहि विधि कहहु चलों तेहि भांती। सोचों साझ दिवस नहि राती।।
विश्राम:-
जेहि विधि वचन कहहु तुम चलत न लावहुँ वार।
नातरु जीव गंवाइहां, शपथ करों कतरि।।59।।
कुंअर प्रेम मैना जब जाना। तब अस वचन कहयो परमाना।।
राजा रानी वात जनेये। तो यात्रा जनि नहि पेये।।
महथ पुरोहित औ कोटवारा। इन जानत नहि हिये विचारा।।
देश नर कर जत सब लोगा। सुधि सुनते सव करब विरोगा।।
अब काहुहिं न जनाइय वाता। हम तुम जानहि जान विधाता।।
विश्राम:-
प्राणमती को ध्यान धरि, चलहु कुंअर तजि गेह।
मन वच कर्म सुमिरि हरी, जो तुम करहु सनेह।।60।।
चौपाई:-
तब दुहु मिलि वहु मंत्रविचारा। चलन यतन मन गुन्यो कुमारा।।
वारहिं वार विचारहिं दोऊ। चलिये तुरत जान नहि कोऊ।।
जो विधि जियत ले आवे जाई। सबसों मिलन करब पुनि आई।।
जो मारग मरना रचि राखा। इहे दरस दूनहु अस भाषा।।
यह पुनि जग जानत सब कोई। अंत लिलार लिखा सो होई।।
विश्राम:-
कुंअरहिं लागी छटपटी, कल नहि परे शरीर।
मनुवा रहे न अस्थिर, जस वालक विनु क्षीर।।61।।