मनमोहन की रति जब जागै / स्वामी सनातनदेव
राग पूर्वा, तीन ताल 18.9.1974
मनमोहन की रति जब जागै
अन्तर की ममता समता सब प्रीतम के रति-रस में पागै॥
अपनो बस लागै मोहन ही, और न कहुँ ममता उर जागै।
मोहनमय ही लगै सकल जग, प्रीतम की प्रतिमा सब लागै॥1॥
सुलगै विरहानल उर-अन्तर, तपे तयो-सो अग-जग लागै।
स्याम बिना न सुहाय और कछु, स्याम-सुरति में मन अनुरागै॥2॥
पल-पल रहै प्रतीक्षा-सी उर, दरस-परस उछाह जिय जागै।
कन-कन में प्रीतम ही खोजै, मनमें लगन ललन की लागै॥3॥
स्याम बिना जब जियन न भावै, असन-वसन हूँ की सुधि भागै।
पल-पल कलप-कलप सम बीतै तब मोहन-मन हलचल लागै॥4॥
द्रवै दयानिधि प्रीतिपात्रा पैसेवक की ममता जिय जागै।
दरस-परससों नयन धन्य करि सुरति-सुधा में उर अनुरागै॥5॥
‘प्रीतम-प्रीतम’ की रट लागै, अंग-अंग हरि-रसमें पागै।
होय धन्य, फिर जन-जन हूँ के मन में मोहन-मुरति झाँकै॥6॥
ऐसे कबहुँ कि होय प्रानधन! तुव रति-रस में यह मन रागै।
तव रति में रचि-पचि फिर प्यारे! कन-कनमें तुव छवि लखि छाकै॥7॥