मनुज-पुष्प / नरेन्द्र शर्मा
टुकुर टुकुर नभ में निहारते तारों से ही पूछो तुम,
अखिल भुवन के उपवन में है सर्वोत्तम वह कौन कुसुम?
मानव उसका नाम, फूल वह खिला प्राण की डालों पर,
सुरभित सुरँग पँखुरियाँ जिसकी हैं मानव प्राणी हम तुम!
किन्तु क्रोड़ में पुष्पश्रेष्ठ के बसा एक लघु कृमि भी है,
जिसने कई बार फुलवारी की फुलवारी डस ली है!
पर यह ऐसा फूल कि फिर फिर धूलि निगल जी उठता है,
सब भूतों ने महामहिम मानव को वह प्रतिभा दी है!
उस प्रतिभा का नाम चेतना, वही सुरभि इस चम्पक की!
सुरभि सिन्धुवत, किन्तु बुद्धि कणिकावत अणुवत सम्यक भी।
दल पर दल खुलते प्रसून के कहीं सुरभि का अन्त नहीं--
किन्तु एक दिन बुद्धि गहेगी सुरभि-चेतना तह तक की!
पूर्ण मनुज जब जीत प्रकृति, आगे को पाँव बढ़ायेगा,
कैसे कह दूँ स्वल्पज्ञान--किस मंजिल तक वह जाएगा?