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मनुष्यता की कसौटी/ प्रताप नारायण सिंह

कभी न थमेंगी
इस धरा पर विस्फोट की गूँजें,
कभी न मिटेगी
आकाश की साँसों में घुली बारूद की गंध।

पर इन्हीं हवाओं में
कभी पगडंडियों पर झरता है अमलतास,
कभी खिल उठती है शिशु की मुस्कान
जैसे बादलों के बीच खिंच जाती है
सूर्य की सुनहरी रेखा।

हँसी और क्रंदन--
ये दो ध्रुव हैं जीवन के,
जो तैयार करते हैं
संवेदना, करुणा और साहस की कसौटी,
जिस पर
मनुष्य को कसा जाता है,
और स्थापित की जाती है
मनुष्यता की महत्ता।

जंगल के नियम
निर्वाक और निस्पंद हैं,
वहाँ नहीं होता कभी विरोध
नहीं निकाले जाते जुलूस
नहीं की जाती कोई बहस,
हर शिकार, हर मृत्यु, हर पीड़ा
उतनी ही स्वाभाविक और ग्राह्य होती है
जितनी कि जल पर लहरों की थिरकन।

पर मनुष्य की आँखों का एक अश्रु भी
प्रश्न बनकर उभर जाता है,
एक कराह भी
उठ खड़ी होती है प्रतिरोध बनकर।
परिवर्तन के परिमाण से अधिक
महत्वपूर्ण होता है
उसके लिए किया गया प्रयास|
 
गहन अँधियारे में
जो मनुष्य दीपक गढ़ता है,
वही रचता है उजाला,
और सिद्ध करता है--
विरोध ही है
मनुष्य होने की पहली शपथ।