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मनु के सपूत / नरेन्द्र शर्मा

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जिस दिन, मनु, तुमने कहा—पालतू पशु सा रहना इष्ट नहीं,
तुम छोड़ अदन-उद्यान बसाने निकले अपनी सृष्टि कहीं,
उस आदिम युग से आज तलक यों तो अनगिनती कष्ट सहे—
पर आँखों के सन्मुख देखा था ऐसा घोर अनिष्ट नहीं!

आदिम युग में भी वसुन्धरा का हुआ कभी था जल-प्लावन,
पर वसुन्धरा कंदुक थी तब, देवों के हित क्रीड़ा-साधन!
उस आदिम युग से आज तलक बीती हैं सदियों पर सदियाँ,
जब आज मनुज ने बना लिया नवयुग का सिंहद्वार पावन!

नवयुग का सिंहद्वार पावन! जिसके भीतर नव साम्यस्वर्ग!
नव साम्यस्वर्ग! जिसमें खोए, हो गए एक, शत मनुज-वर्ग!
वह सिंहद्वार, जिसके भीतर है सजा आज ऐसा समाज,
कल्पना देखती थी सपना जिसका, जिसका सेवक निसर्ग!

मनु के सपूत! तुम मनुज-स्वर्ग के निर्माता हो, रक्षक हो!
इस सिंहद्वार की रक्षा का रण अंतिम, रण में हार न हो!