मनोरोगी / सपना भट्ट
डोले से उतर, तुम्हारे आंगन में पग धर
देहरी पर अक्षतों की बौछार की।
तुम हर्षित हुए
तुमने मुझे लक्ष्मी कहा।
तुम्हारी रसोई के धुंधुआते चुल्हे पर
पकाई खीर, परोसी सबको
तुम तृप्त हुए
तुमने मुझे अन्नपूर्णा कहा।
बच्चे अपनी कोख में रख
किये भीतर बाहर के सारे काम
जने तुम्हारे बच्चे, दांत और मुठ्ठियाँ भींचकर
तुम्हे वारिस मिले
तुमने मुझे पूतों वाली कहा।
तुम्हारी गृहस्थी में जोता खुद को
तुम्हारे कर्ज़ स्वयं पर फ़र्ज़ किये
तुम्हारी गाड़ी को खींचने में दो नहीं
तीन पहिये, मेरे खून पसीने के रहे
तुम उपकृत हुए
तुमने मुझे कमाऊ कहा।
फिर एक दिन आधी उम्र ढलने पर
मैंने पंख देखे अपने, नुचे और फटे हुए
पैर देखे लहूलुहान और कमज़ोर
कोख देखी क्षत विक्षत
छातियाँ देखीं ढांचे में बदली हुई।
तुम ने कहा इतना मत सोचो
देखो ये घर, ये बच्चे, ये जायदाद, ये ऐशो इशरत
और क्या चाहिए एक औरत को
जीवन में भला!
मैंने सोचा
कि यह सब ही चाहिए था क्या मुझे!
यही सुख है क्या सबसे बड़ा!
तब क्यों
मेरी आलमारी में किताबे कम
दवाएँ, एक्सरे और अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट्स अधिक हैं।
तब क्यों मन हमेशा डूबा रहता है!
किसी से पूछ नहीं पाती
बस कभी कभार आवाज़ आती है
"तुम बहुत सोचने लगी हो, सोचना औरतों का काम नहीं है।"
मैं सोचती हूँ कि सोचना नहीं सोचना क्या अपने वश में होता है!
अब वे मुझे मनोरोगी कहते हैं।