मनोवेदना - 1 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
चिर दिन से आँखें आकुल हो लालायित हैं मेरी;
भारत-जननि, नहीं अवलोकी कांति अलौकिक तेरी।
वर विकासमय वारिज के सम विकसित बदन न देखा;
चारु अधार पर नहीं बिलोकी रुचिर हँसी की रेखा।
कहाँ गयी वह रूप-माधुरी, जो थी मुग्ध बनाती;
कहाँ गयी वह भाव-मंजुता, जो भव-विभव कहाती।
कहाँ गयी वह कला-चातुरी लोक चकित कर चोखी;
कहाँ गयी वह गौरव-गरिमा जग-रंजिनी अनोखी।
क्यों तू है अवसन्न, दिखाती क्यों बहुचिंतित तू है;
क्यों परमाकुल नयन-युगल से आँसू पड़ता चू है।
बहु आलोकित होते भी क्यों तिमिर-भरित है काया;
क्यों महान मानस-नभ में है मोह-निविड़-घन-छाया।
अपने बहु कपूत पूतों की देख अपार कपूती;
बनी विलोक जाति-ममता को कामुकता की दूती।
अवलोकन करके कुलीन को कुल-कलंक उत्पाती;
क्या तू छन-छन छीज रही है छिले-छत-भरित छाती।
घर-घर कलह-वैर है फैला, जन-जन है मदमाता;
मनमानी की मची धूम है, टूट रहा है नाता।
नए-नए नाना विचार में कपटाचार समाया;
जो लोचन हैं ज्योति-निकेतन, उन पर तम है छाया।
पावन प्रेम-पंथ को तजकर प्रेमिकता से ऊबी;
लोक-ललाम भूत-ललना है लोलुपता में डूबी।
है विलास-वासना लुभाती, अहंभाव है भाता;
नारि-धर्म को त्याग-रहित है समता-भाव बनाता।
देव-भवन में देव-भाव का है अभाव दिखलाता;
सुर-दुर्लभ-संपति-सुमेर है सदा छीजता जाता।
सूख रहा है सुधा-सरोवर, स्वर्ग धवंस है होता;
रत्नाकर निज अंक-विराजित रत्न-राजि है खोता।
सहनशीलता कायर की कायरता है कहलाती;
चित की दुर्बलता दयालुता बन है आदर पाती।
सकल कुटिलता गयी, कल्पना राजनीति की मानी;
बहुवंचकता चरम चतुरता की है चारु कहानी।
रहा न धर्म, धर्म-आडंबर ही है धर्म कहाता;
जन मयंक छूने को वामन होकर है ललचाता।
नरक-वास कर लोग बात हैं सुरपुर की बतलाते;
हैं नंदन-वन-पथिक, किंतु हैं चले रसातल जाते।
क्या इन बातों को विचार तू प्रतिदिन है कुम्हलाती;
शोच-विवश ही कलित कांति क्या मलिन बनी है जाती।
कब तक जाएगा जगवंदिनि, यह महान दुख भोगा;
क्या अब नहीं सुदिन आवेंगे, स्वर्ण-सुयोग न होगा।