मनोव्यथा - 1/ अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
बिछा है कूट-नीति का जाल,
कलह-कलकल है चारों ओर;
कालिमामय मानस का मौन
मचाता है कोलाहल घोर।
मंजु-पथ-मग्न सरोवर-हंस
बन गया परम कुटिल वक-काक;
जहाँ था पावन प्रेम-प्रवाह,
वहाँ है प्रबल पाप-परिपाक।
न करते हैं पुनीत रस-दान
सुर-सरित में विकसे अरविंद;
बसा है रच मायावी वेश
देव-सदनों में दानव-वृंद।
अधिकतर है प्रतिहिंसा-धाम,
गरलमय है उसका आधार;
जाति वैसी ही है निर्जीव,
सुधा-धारा है नहीं सुधार।
स्नेह का मृदुल, मंजुतम सूत्र
हुआ कटुता-पटु कर से छिन्न;
अनय का सह-सह प्रबल प्रहार,
हित-सदन होता है उच्छिन्न।
जलन जी की ज्वालाएँ फेंक
लगाती है घर-घर में आग;
वमन करती है गरल अपार।
लोग बन-बनके काला नाग।
कुटिल-गति, विष-वदना, विकराल
साँपिनी-सी है उनकी नीति;
लाभ कर जो भव भूरि विभूति
दूर करते भारत की भीति।
जाति के जो हैं जीवन-मंत्र,
सफलतामय है जिनका गात,
उन्हीं पर घिरे मोह का मेघ,
हो रहा है पल-पल पवि-पात।
पड़ी है भूल-भँवर में आज,
चल रहा है प्रतिकूल समीर;
डगमगाती है सुख की नाव,
दूर दिखलाता है सरि-तीर।
स्वर्ग-से नगर हो गये धवंस,
मिल गये रज में कंचन-धाम;
ललिततम लीलाओं की भूमि
काल-वश रही न लोक-ललाम।