मन्नु भंडारी के नाम(राजेन्द्र यादव के लिए) / चंद्र रेखा ढडवाल
नहीं मापा केवल
चेहरे की मुस्कान को ही
एक सूत भर भी
लगी कम / ज़्यादा
किसी कोण से / किसी कोने में
दीवान पर बिछी चादर
दरवाज़े से पलटीं तुम
तुम्हारे सौंदर्य-बोध पर
ग़रूर से इतराया तुम्हारा पति
* * *
अपने चेहरे पर टिकीं
कई जोड़ी आँखों में
सीधा देखते
पढ़ाते-पढ़ाते
सपाट रास्तों पर चलता
एक शब्द उछला
और हृदय की उहा-पोह में
परत-दर-परत खुलता चला गया
नए रूप-रंग की गंध फैलाता
सिमट गया पोर-पोर में तुम्हारे/सूरज होकर
रोशनी से चुंधिया तुम्हारा पति
* * *
घर रचा
लेखन रचा उससे भी मनोहारी
कुछ-कुछ उसके कंधों से सरकता हुआ
यह भी समझा पति ने
***
क्योंकि प्रबुद्ध है
संवेदनाओं को रत्ती-रत्ती पहचानाता
पर विद्वता से
सहॄदयता से
और विवेक से(कम से कम मैंने तो)
वंचित करते हुए
मात्र और मात्र
मर्द होने की
तख़्ती टाँग दी
उसके बाह्य को नकारते
उसके भीतर पर
जब तुमसे कहा उसने
तुम खाँटी औरत हो