मन का अंग / कबीर
`कबीर' मारूँ मन कूं, टूक-टूक ह्वै जाइ ।
बिष की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥1॥
भावार्थ - इस मन को मैं ऐसा मारूँगा कि वह टूक-टूक हो जाय । मन की ही करतूत है यह, जो जीवन की क्यारी में विष के बीज मैंने बो दिये , उन फलों को तब लेना ही होगा, चाहे कितना ही पछताया जाय ।
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरि फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥2॥
भावार्थ - आशा को जला देता हूँ ईंधन की तरह, और उस राख को तन पर रमाकर जोगी बन जाता हूँ । फिर जहाँ-जहाँ फेरी लगाता फिरूँगा, जो सूत इक्ट्ठा कर लिया है उसे इसी तरह बुनूँगा । [मतलब यह कि आशाएँ सारी जलाकर खाक कर दूँगा और निस्पृह होकर जीवन का क्रम इसी ताने-बाने पर चलाऊँगा ।]
पाणी ही तै पातला, धुवां ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला, सो दोसत `कबीर' कीन्ह ॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं कि ऐसे के साथ दोस्ती करली है मैंने जो पानी से भी पतला है और धुएं से भी ज्यादा झीना है । पर वेग और चंचलता उसकी पवन से भी कहीं अधिक है । [पूरी तरह काबू में किया हुआ मन ही ऐसा दोस्त है ।]
`कबीर' तुरी पलाणियां, चाबक लीया हाथि ।
दिवस थकां सांई मिलौं, पीछै पड़िहै राति ॥4॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -ऐसे घोड़े पर जीन कस ली है मैंने, और हाथ में ले लिया है चाबुक, कि सांझ पड़ने से पहले ही अपने स्वामी से जा मिलूँ । बाद में तो रात हो जायगी , और मंजिल तक नहीं पहुँच सकूँगा ।
मैमन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहिं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥5॥
भावार्थ - मद-मत्त हाथी को, जो कि मन है, घर में ही घेरकर कुचल दो ।अगर यह पीछे को पैर उठाये, तो अंकुश दे-देकर इसे मोड़ लो ।
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥6॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं --नाव यह कागज की है, और गंगा में पानी-ही-पानी भरा है । फिर साथ पाँच कुसंगियों का है, कैसे पार जा सकूँगा ? [ पाँच कुसंगियों से तात्पर्य है पाँच चंचल इन्द्रियों से ।]
मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥7॥
भावार्थ - अरे मन ! अपने मनोरथों को तू छोड़ दे, तेरा किया कुछ होने-जाने का नहीं । यदि पानी में से ही घी निकलने लगे, तो कौन रूखी रोटी खायगा ? [मतलब यह कि मन तो पानी की तरह है, और घी से तात्पर्य है आत्म-दर्शन ।]