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मन के बात / रामकृष्ण

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अइसन अन्हरिआ में
अकचका के
के खांेखलक?
भर-भर के सूप से
धान निअन अन्हार
के ओसौलक?
हम तो जिनगी के चउराहा
छोड़ चुकली हे
कि अपने से छूट गेल हे,
कि तो ओही
हरमेसे के अरमेना निअन
बासी समझ, उछाल देलक हे।

कउन बात सच हे
कइसे कहूँ?
मुदा असमान में टँगल
टेटन के दरद निअन
रह-रह के कसकऽ हे
कि, के बान्हत-उफनित बाढ़ के पानी,
के पढ़त-फार के फेंकल,
असगरूआ कहानी?
दूरा-दलान
गाँव-घर
गली-बधार
सगरो तो रउदे भरल
अकास हे,
जेठ के लहरल बतास हे।
धुनिआँ के कपास निअन
उड़ जाहे घाव के टीस।
(सुनऽ ही जब कोई मेहरारू
मीठ बात के मरहम लगा देहे)

असरा के दीआ बार
केतना रोऊँ - नाटक, रमलीला के हँसी
सड़क पर तो, पछेआ के लहर भी
झनकित हे।
साँसत के नाम पर/लहकल जिनगी के
लाल-लाल, परासी अगिआएल फूल
ओह!
बड्ड निरलज्ज हे निगोड़ा
जे कहदे हे सगरो -
कोहवर के बात
बतिआएल हँसी निअन
चिबावल चुम्मा।
अगहन-पूस के रउदारी में
बटोरली हल लोढ़ा-पाँजा भर
से हो तो

दलान पर धरते/मुआरी लगल
लील, गेल
‘बाबू’ के बगदर बैल।

अब तो खिस्सा-कहनी के पाँख भी
खोलऽ हे आँख
अन्हरिआ में भगजोगनी
डाढ़े-पाते पसर जाहे
मड़वा के मेठ निअन
पुरधाइन बनल
‘न हे’ के खटका
सबके न भेसावे।

खूँटी किआरी पर चलल
खोरठाएल गोड़
अलकतरापोतल संडक पर
न जरत का?
अनहिसका के खाएल पेट निअन
अइंठ के बोलेवाला
हरेक छन-दुखा देहे हमर घाव
आउ,
मनके सरधा अइसन
कि रोवे के नाम पर भी
डेरा जाहे।