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मन तू क्यों एतो इतरावै / स्वामी सनातनदेव
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राग कौशिक-कानड़ा, तीन ताल 28.9.1974
मन तू क्यों एतो इतरावै?
जाको गरव करत तू पामर! सो तो तेरे काम न आवै॥
तन धन जन सब यहीं रहेंगे, कोऊ तेरे संग न जावै।
अपने करि मानत तू जिनको फिर तिनको कोउ पतो न पावै॥1॥
जा विद्या को करत भरोसो, सो हूँ भारभूत रह जावै।
कहा काम आवैगी विद्या जब पागलपन आय दबावै॥2॥
बड़ो बली मानत जा तनुकों रोग भये सो बल कित जावै।
धन-जन धरे रहेंगे यों ही जब जम निज सन्देस पठावै॥3॥
साधन सिद्धि-रिद्धि या जग की जग में ही कछु खेल खिलावै।
आँख मुँदे परलोक गये फिर एकहुँ तेरे काम न आवै॥4॥
सदा-सदा के साथी तेरे केवल हरि, तिनकों जो ध्यावै-
तो रस-सिन्धु समाय अन्त हूँ तनु तजि अजर अमर पद पावै॥5॥