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मन पर कैसे कोई काबू पाये / कमलेश द्विवेदी

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सोच रहा हूँ-मन पर कैसे कोई काबू पाये।
मन तो अपनी चंचलता से हरगिज़ बाज़ न आये।

मन चंचल तो होता है पर
ग़लत नहीं कह सकता।
मन के मन में सच रहता है
झूठ नहीं रह सकता।
इसीलिए मन हरदम हमको सच्ची राह दिखाये।
सोच रहा हूँ-मन पर कैसे कोई काबू पाये।

क्या अच्छा है और बुरा क्या
अपने मन से जानें।
मन का जो भी निर्णय हो हम
उसको मन से मानें।
मन की माने तो फिर कोई कभी नहीं भरमाये।
सोच रहा हूँ-मन पर कैसे कोई काबू पाये।

सच पूछो तो मन होता है
जैसे कोई बच्चा।
वो चंचल तो होता है पर
होता बिलकुल सच्चा।
क्या बच्चे पर काबू पाना भी कोई समझाये।
सोच रहा हूँ-मन पर कैसे कोई काबू पाये।