मन बंजारा / कुमुद बंसल
संवेदना की लहरें
कविता के माध्यम से छोटे-छोटे लम्हों की तितलियाँ पकड़ने का प्रयास भी अनूठा होता है। प्रस्तुत काव्य- संकलन ऐसा ही सफल प्रयास है। ।
एक संवेदनशील कवयित्री के रूप में कुमुद बंसल ने अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित कर ली है। अपने उद्घोषित संकल्पों के प्रति समर्पित कुमुद की छोटी-छोटी कविताएँ, जहाँ एक ओर चिंतन के धरातल पर प्रौढ़ता का आभास देती हैं, वहीं उनका संवेदनशील मन अनायास ही अपने मानव-सुलभ एहसासों में डूबने लगता है।
इस संकलन का प्राक्कथन अपने आपमें एक कविता है। लगता है यह प्राक्कथन वस्तुतः पूरे संकलन का प्राणबिन्दु है।
"मन बंजारा, नहीं किसी से हारा, न घर न ठिकाना, आज यहाँ तम्बू, जाने कल किधर है जाना ।.... इसकी आवारगी में भी एक तहज़ीब है।"
इस संकलन की चार-चार पंक्तियों की हर कविता, अपने आप में एक पूरा बयान है
• “जो बादल।से बरस गए, वे बन गए समन्दर । छिपे रहे जो मेरे नैनन, मैं डूबी उनके अंदर।।
इसी 'रौ' में एक और तेवर
• “सूने कुएँ-से हो गए रिश्ते, पहचान भी खोई । लाख पुकारा इधर से, गूँज भी उधर न हुई।।"
संकलन की कुछेक नन्ही कविताएँ अनूठी प्रयोगधर्मिता की गवाही देती हैं। "संबंधों में तो न था, कोई धागा। फिर भी गाँठों में, उलझा अभागा।।" कुछ-कुछ ऐसी ही संवेदनशीलता से भीगी है यह कविता,
“वक्त नहीं है कोई धागा, ज़ख्म सीने का। बस, हुनर आ जाता है, दर्द के साथ जीने का।।"
इन कविताओं में कहीं मोहभंग, वितृष्णा व अंतर्विरोधों से डंकित लम्हों के बयान दर्ज हैं,तो कहीं-कहीं निश्छल संवेदनाओं के लोबान की खुशबू भी मौजूद है ।
कवयित्री अपनी संवेदनशीलता को बनाए रखे, तो सृजन के सुखद होंगे, अन्तर्मन को भिगोते रहेंगे। मैं उनके काव्य-पक्ष की उजली उपलब्धियों के प्रति आशान्वित हूँ।
-डॉ. चन्द्र त्रिखा