भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन भौंर पापी रिंगि-रिंगि औंदु त्वै पर / ओम बधानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन भौंर पापी रिंगि-रिंगि औंदु त्वै पर
जुगत् जन्त जोड़ि हार्यों त्वै बिसरूं कनै

रूपौ समोदर देखि बांदु कि डार लंगत्यार
अणगाई अटकळी नी क्वी,खोजी एक तेरी अन्वार

तेरा ऐथर रंगीलो बसंत दिखेंदु धुमैलु
तेरा रूप की हाम मा ह्यूंद चितेंदु उमैलु

फर-फर-फर-फर उड़ि बथौं खुसबौ तेरि उडै़ ग्याई
सर-सर-सर-सर सर्या बादळ खुद कू छैलु सरै ग्याई

बसगाळी छालू नि देखी जेठ दोफरी म दौड़ी
उठी जब हूक जिकुड़ा लोक लाज सब छोड़ी।