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मन में जो ठान लिया / अरुणिमा अरुण कमल

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मन में जो ठान लिया,
दिल को ज़बान दिया,
फिर दिक़्क़त काहे को !

आँखों की शर्म को
फ़ेंक दिया चौखट पर,
झिझक को हौले से
रोक दिया फुसलाकर,
पोथी को बाँध कर
ढोय लिया पीठ पर,
ताला लगाए लिया
अपनी हर खीज पर,

स्व को जो मान दिया,
फिर दिक़्क़त काहे को !

घर से होके बाहर
अपनी ज़िमेवारी पर,
स्वयं से वादा कर
स्वयं की आश्वस्ति पर,
स्तंभों-सा ठोक दिया
पैर को ज़मीन पर,
मेहनत से पाना है
लेना नहीं छीन कर,

ख़ुद को पहचान लिया,
फिर दिक़्क़त काहे को !

लोक और समाज की
बातों की पी गई,
पीछे का रोना क्या
जीना था जी गई,
अंधी और बहरी सारी
रूढ़ियों को तोड़कर,
अम्मा की बातों को
गाँठों में जोड़कर,

माथे अभिमान लिया,
फिर दिक़्क़त काहे को !