भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन ही मन मुस्कुरा रही है जाड़े की धूप/ विनय प्रजापति 'नज़र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रचनाकाल : २००३/२०११

मन ही मन मुस्कुरा रही है जाड़े की धूप
सर्द सफ़्हे<ref>पन्ने</ref> गरमा रही है जाड़े की धूप

उड़ती फिरती है ये नरमो-सख़्त<ref>नर्म और कड़े</ref> पत्तों पर
हर दिल में गीत गा रही है जाड़े की धूप

गहरी नीली शाल में लिपटा दिखा था चाँद
बीते पल-छिन<ref>समय के टुकड़े</ref> उड़ा रही है जाड़े की धूप

कब से मुब्तिला<ref>क़ैद</ref> थी गुलाबी गुलों में ख़ुशबू
सारे ख़ाब महका रही है जाड़े की धूप

उफ़क़<ref>सुबह का आसमान</ref> से शफ़क़<ref>शाम का आसमान</ref> तक बह रही है तेरी रोशनी
दिल के ज़ख़्म सहला रही है जाड़े की धूप

ज़िंदगी वक़्त की धुंध में और दिखती नहीं
अश्को-अब्र<ref>आँसू और बादल</ref> बरसा रही है जाड़े की धूप

इस सिम्त<ref>दिशा, ओर</ref> मैं तड़पता हूँ उस सिम्त तन्हा तुम
हमको इक जा<ref>जगह</ref> बुला रही है जाड़े की धूप

मैंने कभी कहा नहीं तुमने कभी सुना नहीं
हर्फ़े-इश्क़<ref>इश्क़ के शब्द</ref> समझा रही है जाड़े की धूप

शब्दार्थ
<references/>