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मन / रचना उनियाल
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नभ के सृदश विस्तृत मन
हिरण की भाँति कुलाँचे भरता
विचरता है
बाह्य व अंतह जगत में।
विद्युत की गति धारकर
तुरंग को पछाड़ता
चंचल चपल चमकृत
करता जाता है।
मन व्योम गंगा में,
आकांक्षाओं के
तारे,
सदैव झिलमिलाते हैं।
योगी श्रेष्ठ
लिप्सा, मोह, वासना,
को विजित कर
मन के नृप बनकर
जीवन दर्शन जी जाते हैं।