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मय को बताओ ज़हरे-हलाहल फूल को बेशक ख़ार कहो / कांतिमोहन 'सोज़'

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मय को बताओ ज़हरे-हलाहल फूल को बेशक ख़ार कहो ।
एक दिन दुनिया सच मानेगी झूट को सौ-सौ बार कहो ।।

हम भी गए दरबार में उसके आख़िर ये ताकीद<ref>हुक़्म</ref> हुई
खंजर को हर बार मरहबा<ref>वाह-वाह</ref> क़ातिल को दिलदार<ref>दिलासा देनेवाला</ref> कहो ।

आज़ादी सी आज़ादी है सड़कों पर चौराहों पर
धूल को हीरा ठग को कबीरा गीदड़ को गुलदार<ref>बाघ</ref> कहो ।

तुम भी बिलआख़िर दीदावर<ref>पारखी</ref> की नज़रों में चढ़ जाओगे
कोई हक़<ref>सचाई</ref> की बात करे तो फाँसी का हक़दार कहो ।

नए दौर की भाषा सीखो सीखो कुछ अन्दाज़ नए
पागल को आक़िल<ref>अक़्लमन्द</ref> बतलाओ ग़ाफ़िल<ref>बेख़बर</ref> को बेदार<ref>चौकन्ना</ref> कहो ।

वो जाने और उसकी सियासत उससे हमें तकरार नहीं
अपनी मुसीबत है कि उसे जम्हूर का जानिबदार<ref>जनता का पक्षधर</ref> कहो ।

सोज़ तुम्हें भी तो आख़िर इस दौर में ज़िन्दा रहना है
जिनको सुनकर वो ख़ुश हो ले ऐसे भी अशआर<ref>शेर</ref> कहो ।

शब्दार्थ
<references/>