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मरुस्थल का राजा (ग़ाफ़) / आरती 'लोकेश'

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बड़े काम का हूँ मैं मित्रों, फिर भी रहूँ हमेशा मौन,
रेगिस्तान में पाया जाता, बूझो तो जानूँ, मैं कौन?
मरु प्रांत का नृप कहलाता, बंजारों के आता काम,
अमीरात का राष्ट्रीय वृक्ष मैं, हिंदी में है ‘खेजड़ी’ नाम।

सहिष्णुता का पाठ पढ़ाती, मेरी नन्ही छोटी पत्तियाँ,
चले पवन झूल इठलातीं, शाखाओं की लटक बत्तियाँ।
धूप-ताप सब सहता हँसकर, पलता हूँ काँटों के बीच,
ऊँटों का प्रिय भोजन बनकर, देता प्रेम से उनको सींच।

रहूँ सदा ही हरा-भरा मैं, नहीं मानता मौसम पतझड़,
आँधी-तूफ़ान का कर सामना, नहीं उखड़तीं मेरी जड़।
मेरी छाया में पूर्वजों ने, किए हैं कई विचार-विमर्श,
अपना सब कुछ उनके हित, दान किया मैंने सहर्ष।

संतोषी स्वभाव बहुत मेरा, हवा नमी से लेकर जल,
भरता हूँ धरती के कोष को, उर्वर करता हूँ पल-पल।
सूखा रहकर भी तुम्हें प्यासा, कभी देख पाऊँ कैसे,
मेरी मिट्टी के नीचे एकत्र, पानी तुम्हें पिलाऊँ ऐसे।

जम्मी, शमि कहते कुछ तो, और कभी कहते हैं ‘ग़ाफ़’,
वातावरण को क्षति जो देते, उदार हृदय से करता माफ़।
अरब धरा में घर है मेरा, मुझको नहीं जानता कौन,
रेत टीलों के मध्य विराजूँ, सुख बरसाता हूँ रह मौन।