मरु-जल / नंद भारद्वाज
चिलचिलाती धूप के उस पार
फैला दीखता है जो चिलकता दरिया
वह होता नहीं दर-हकीकत कहीं -
जो कुछ बचा रहता है हमारी दीठ में
उसी को सहेजने की साध में
भागते रहते हैं दिशाहीन
सूरज उतर जाता है क्षितिज के पार
इस उजाड अंधेरे में छोडकर अक्सर!
बरसों बाद
जब पलटकर आते हैं खाली हाथ
उन्हीं पगडंडियों पर खोजते
पांवों के नीचे थोडी-सी नमी
और सूनी आंखों में छुपाते अपनी प्यास
इस कोसों पसरे थार के अधबीच,
कंटीली झाडयां और छितरे दरख्त
यह धीरज बंधाते हैं कि कहीं गहरे में
संजोकर रखती है पृथ्वी अपना जल!
अलग तब कहां रहती प्यास
जिसे बरसों पहले बसा लिया था
घर बाहर की दुनिया में इकसार
चिलचिलाती धूप में
फिर कहां पाते अलग निराली छांव
जिन्हें चाव से उगाया था कभी
पहली बरसात में वे दरख्त
कभी हुए ही नहीं संभव
प्यासी हवाएं बेरोक निकल जाती रहीं
इस अधबस आसरे के पार
जिसे उम्मीद से बसाया था हमारे पुरखों ने कभी
बेशक न सुझा पाएं कोई निरापद नदी का रास्ता
दरिया दीखता हर पल -
निर्जल नहीं हैं हमारी स्मृतियां
जीते हैं हम इसी मरु-जल की
निर्मल आस में !