मर्दानगी / जावेद आलम ख़ान
मेरी पीठ पर लदी बचपन की गठरी में
बुझी हुई राख के साथ
कुछ उजली मुस्काने बेतरतीब-सी बंधी हैं
मैं जब भी गठरी खोलना चाहता हैं
दुश्चिंताओं की प्रौढ़ मंडली मुझे रोक देती है
और मैं राख के डर से
मुस्कान को भी नहीं ढूँढ पाता
एक निश्छल हंसी हंसे अरसा बीत गया
इस अरसे में कई बार बादल खुलकर बरसे
हवा की थाप पर मोर कई बार नाचे
कोयल ने सैकड़ों बार पुकार लगाई
जब जब रबी की फसल जवान हुई खेत पीले हुए
नदियों पर जवानियाँ चढ़ती रहीं
लेकिन मेरा ह्रदय पर्वत का स्थाई भाव ओढ़े देखता रहा
अपना माथा चूमते बादलों की क्रीड़ा
गोद में खिले बसंत से चुहल करती तितलियाँ
दूर जाती नदियों की खिलखिलाती हंसी हो
या घोंसले के लिए तिनके ढोता गौरैया का जोड़ा
मेरी कल्पना इन सबको बांहों में लेना चाहती थी
आंखें दृष्टि के पुल से इनसे जुड़ना चाहती थीं
ह्रदय धरती के हर रंग में रंग जाना चाहता था
मगर समय पूर्व प्रौढ़ हुई बुद्धि ने अति भावुकता कहकर
बाहर कर दिया समझदारी की सीमा से
और तहजीब के दायरे से
मैने कई बार चाहा उस बचपन में लौटना
जहाँ छह बहन भाई एक साथ खेल रहे हों
मगर तुरंत ही रोक दिया भीतर की उस आवाज ने
कि बड़ा भाई छोटों की नसीहत के लिए बना है
कि उसकी हंसी ठिठोली से उसका अदब नहीं होगा
खुशी के क्षणों में चाहा कि लिपट जाऊँ पिता के कंधों से
दुखी होने पर चाहा कि फूट फूटकर रो पड़ूं
अम्मी के दामन में सर रखकर
वैसे ही बुद्धि ने ताकीद की मर्द भी कहीं रोते हैं
कि मर्द नहीं करते बचकानी हरकतें
मेरे मर्द बनते ही
बचपन में साथ खेलने वाले दोस्त दूर होते गए
जो लड़कियाँ थीं वह पर्दा करने लगीं
लड़के जो कमज़ोर थे डरने लगे
जो ज़बर थे जलने लगे
भीतर उगे तमाम फूलों की बेदखली है मर्दानगी
हजार कोमलताओं के कत्ल पर मिलता है मर्द का तमगा
कि बच्चे का मर्द बनना इंसानी इतिहास की सबसे क्रूर घटना है