मर्सिया-१ / गिरिराज किराडू
इनको कुछ पता नहीं चलता ऐसी जगह घर नहीं बनाते जहाँ बच्चे सुरक्षित न हों
एकदम नवजात एक बच्चे के शव को छूने-देखने के लिए तैयार होना क्या इतना आसान होता है कि अखबार के एक टुकड़े पर झाड़ू से उठाया और नीचे गली में फेंक दिया
सबसे छोटी उंगली जितना छोटा एक शव
इस दृश्य को तुम्हारी आँखों के आगे से इतनी तेजी से हटा लेना है कि उस छोटे से शव को कुतरती चींटियाँ भी अखबार के टुकड़े में लिपट जा गिरें नीचे गली में
इनको कुछ पता नहीं चलता क्या खा रही हैं
– अब आँगन में कोई शव नहीं –
नहीं चिड़िया के बच्चे का नाम रोहिताश्व नहीं होता नहीं अब मुझमें किसी बच्चे का शव देखने की हिम्मत नहीं होनी चाहिए नहीं मुझे ऐसी कुशलता से इतना क्रूर अंतिम संस्कार करना नहीं आना चाहिए नहीं मुझे तुमसे छुपानी चाहिए यह बात कि कितने बच्चों के शव मेरी याद में पैबस्त हैं
मैं तुमसे नज़रें बचा कर नीचे गली में देखता हूँ इस क्षण भी चिड़िया पर कविता लिखने वाले कवि मेरे पूर्वज हैं इस क्षण भी उनका अपमान मेरी विरासत है
मिट्टी में मिट्टी के रंग का शव अदृश्य है
इस क्षण तुम एक शव की माँ हो
मैं एक शव की माँ के सम्मुख नज़रें झुकाये खड़ा एक पक्षी