भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मर गई आस फिर भी ज़िन्दा हूँ / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
मर गई आस फिर भी ज़िन्दा हूँ
देखो मुझको मैं इक करिश्मा हूँ
मैं तो ख़ुद से न मिल सका अब तक
मैं किनारा किसी नदी का हूँ
मुझसे क्यो बच के सब निकलते हैं
आदमी मैं भी इस सदी का हूँ
क्यों अंधेरों ने मुझको घेरा है
हिस्सा मैं भी तो चाँदनी का हूँ
हर तरफ से है घेरे हुस्न मुझे
मैं तो मुश्ताक भी उसी का हूँ
सुख का सागर छलक रहा घट में
मैं भी उसका ही एक कतरा हूँ
मेरा ईमान, सादगी मेरी
हर नुमाइश से दूर रहता हूँ
राख समझें न ये जहाँ वाले
‘देवी’ अंदर से मैं तो शोला हूँ