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मर गए हैं जो हिज्र-ए-यार में हम / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'

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मर गए हैं जो हिज्र-ए-यार में हम
सख़्त बे-ताब हैं मज़ार में हम

ता दिल-ए-कीना-वर में पाएँ जगह
ख़ाक हो कर मिले ग़ुबार में हम

वो तो सौ बार इख़्तियार में आए
पर नहीं अपने इख़्तियार में हम

कब हुए ख़ार-ए-राह-ए-ग़ैर भला
क्यूँ खटकते हैं चश्म-ए-यार में हम

कू-ए-दुश्मन में हो गए पामाल
आमद-ओ-रफ़्त-ए-बार-बार में हम

नाश पर तो ख़ुदा के वास्ते आ
मर गए तेरे इंतिज़ार में हम

गर नहीं ‘शेफ़्ता’ ख़याल-ए-फ़िराक़
क्यूँ तड़पते हैं वस्ल-ए-यार में हम