मशोबरा की पर्वत-कन्या / सरोज कुमार
दमयंती के गालों पर,
अक्टूबर के सेब
बारहों महीने फलते हैं!
पर्वर्तों के आटोग्राफ
दमयंती के चेहरे पर अंकित हैं!
दमयंती की रीढ़ देवदार की बनी है!
दमयंती को नल दमयंती की कहानी
नहीं मालूम
उसने नहीं देखी
दूर से भी कभी रेल!
कहती है
आसमान में खटौला देखी हूँ!
दमयंती को नहीं मालूम
प्रधानमंत्री का नाम
देश का भूगोल
पोस्टकार्ड का दाम!
दमयंती को मालूम है
दूल्हा पालकी में बैठकर आता है!
और जब लड़की
घर लौटती है
तब उसकी गोद भरी होती है!
दमयंती को
चंबा और किन्नौरी नृत्य,
बचपन ने सीखा दिया थे!
वह थिरकती और गाती रही,
“ पतंग वारी डोर मेरी किसने खिंची रे?”
दमयंती सयानी हो गई है
उसकी पालकी अभी
आना शेष है!
जिसकी माँ
बचपन में मर जाती है
उसकी पालकी देर से आती है!
पतंग वाली डोर का गाना
वह भूली नहीं है!
पर खुलकर नहीं गाती!
उसे ऐसा लगता है
मानों उसके गाने की पतंग
वह स्वयं है
और पतंग की डोर
सब खींचना चाहते है!
डोर अगर टूट गई
पतंग हवा में हिचकोले खाएगी!
सब उसे लूटने दौड़ेंगे!
उसने लुटती हुई पतंगे
चिंदे-चिंदे होती देखी हैं!