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मश्श:ले रात एक काफ़ी है / परमानन्द शर्मा 'शरर'
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मश्श:ले रात एक काफ़ी है
अज़्म तो अहले-कारवाँ में हो
ढूँढ ही लेगी मेरी फ़िक्रे-रसा
तुम किसी हफ़्त आसमाँ में हो
मुझको दूरी का कुछ मलाल नहीं
गर तग़ाफ़ुल न दरम्याँ में हो
बिजलियों से मैं दिल्लगी कर लूँ
कोई तिनका तो आशियाँ में हो
मर्दे-कामल की है यही पहचान
सूद में हो न वो ज़्याँ में हो
जिसे कहते ज़ुबाँ की शीरीनी
तेरे जुमलों तेरे बयाँ में हो
शे’र कहने का फ़ायदा क्या ‘शरर’
जब न मआनी कोई बयाँ में हो