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मस'अला रूह का ... / सुरेश स्वप्निल
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सियासत-सियासत[1] न खेला करो
सुख़न[2] का सही वक़्त देखा करो
किसी दिन क़सम से, चले आएँगे
हमें यूँ न पैग़ाम[3] भेजा करो
झुलस जाएँगी आपकी उँगलियाँ
न यूँ राख़ दिल की कुरेदा करो
शबे-वस्ल[4] है मस'अला[5] रूह का
सरे-बज़्म[6] क़िस्सा न छेड़ा करो
जहाँ रूह को रौशनी मिल सके
उसी शह् र में अब बसेरा करो
ख़ुदा अब किसी पर मेह् रबाँ[7] नहीं
ज़ेह् न[8] में नई सोच पैदा करो
इधर रिज़्क़[9] है तो इबादत[10] उधर
कहाँ तक सुबह-शाम फेरा[11] करो !