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मस्क्वा नदी के तट पर / बुद्धिनाथ मिश्र

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इस परी के देश में
कितना भरा है प्यार
भाग्य था मेरा कि देखा
रूप का संसार ।

संगमरमर की छबीली
मूरतों के संग
धर हिमानी बाँह
होता सुर्ख गेहुवाँ रंग ।

लाल-पीले हो रहे हैं
भोजवृक्ष, चिनार।

बिजलियाँ-ही बिजलियाँ
पाताल रेलों में
उग रहे हैं चांद
वन की नई बेलों में ।

बहे मस्क्वा नदी
बाहर मौन, भीतर ज्वार ।

फड़फड़ाते होंठ पर हैं
मुक्ति के मधु बोल
उत्तरी ध्रुव की हवा भी
उड़े पाँखें खोल ।

श्वेत हिम का लाल धरती पर
नया शृंगार ।