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मस्ती-भरी वो उम्र सुहानी किधर गयी / दरवेश भारती

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मस्ती-भरी वो उम्र सुहानी किधर गयी
वो रेत के घरों की निशानी किधर गयी

चिन्ताएँ जब भी हद से बढ़ीं सोचना पड़ा
थी जूझती जो इनसे जवानी किधर गयी

वो वलवले रहे न वो अब जोश ही रहा
दरिया-सरीखी अपनी रवानी किधर गयी

पीपल न ताल है, न है चौपाल ही कहीं
पुरखों की एक-एक निशानी किधर गयी

हालात देख आज के उभरा है ये सवाल
तुलसी, कबीर, सूर की बानी किधर गयी

आया बुढ़ापा सर पे तो हैरान हो के हम
'मुड़-मुड़ के देखते हैं जवानी किधर गयी'

रहते थे जिसकी तोतली बातों पे मस्त हम
'दरवेश' होते ही वो सयानी, किधर गयी