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मस्तूल / मिख़अईल लेरमन्तफ़ / अनिल जनविजय

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बुर्राक सफ़ेद मस्तूल अकेला सागर में
चमक रहा है नीले कोहरे की गागर में..
क्या खोज रहा आख़िर वह सुदूर देश में?
क्या छोड़ा, क्या भूल आया वह स्वदेश में? ...

हवा बजाए सीटी औ’ लहरें उछल रही हैं
चरमराए मस्तूल, तेज़ हवा से लचक रहा है ...
नहीं, नहीं ढूँढ़ता सुख-सौभाग्य वह सागर में
नहीं भागता ख़ुशी से बचकर, धचक रहा है

उसके नीचे चमक रहा जल हलका नीला,
उसके ऊपर चमके सूरज सोने सा पीला ...
और वह विद्रोही, झंझाओं से करे अनुरोध
तूफानों में मिले शान्ति, उसको यह बोध

मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

और अब यह कविता मूल रूसी भाषा में पढ़ें
         Михаил Лермонтов
                 Парус

Белеет парус одинокой
В тумане моря голубом!..
Что ищет он в стране далекой?
Что кинул он в краю родном?...

Играют волны — ветер свищет,
И мачта гнется и скрыпит...
Увы! Он счастия не ищет
И не от счастия бежит!

Под ним струя светлей лазури,
Над ним луч солнца золотой...
А он, мятежный, просит бури,
Как будто в бурях есть покой!