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महक उट्ठा यका-यक रेग-ज़ार-ए-दर्द-ए-तंहाई / ख़ुर्शीद अहमद 'जामी'

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महक उट्ठा यका-यक रेग-ज़ार-ए-दर्द-ए-तंहाई
किसे ऐ याद-ए-जानाँ तू यहाँ तह ढूँडने आई

बड़े दिलचस्प वादे थे बड़े रंगीन धोके थे
गुलों की आरज़ू में जिं़दगी शोले उठा लाई

बताओ तो अँधेरों की फ़सीलों से परे आख़िर
कहाँ तक क़ाफ़िला गुजरा कहाँ तक रोशनी आई

तुम्हारे बाद जैसे जागता है शब का सन्नाटा
दर ओ दीवार को देता है कोई इज़्न-ए-गोयाई

सुना है साया-ए-रूख़्सार में कुछ देर ठहरी थी
वहीं से जगमगाते ख़्वाब ले कर जिं़दगी आई