महतारी / रजत कृष्ण
मूड़ पर
ईंटों की थड़ी लादे
गर में दुधमुँहे को लटकाए
भरे जेठ की दोपहरी
देह होम करती महतारी यह
श्रम की किताब में अंकित
सबसे जीवन्त कविता है ।
कितना कुछ कह रहा
आखर-आखर इसका
उन सबसे जो बैठे हैं
वातानुकुलित सदनों में
और लिख-बाँच रहे जो
कविता सुचिक्कन पृष्ठों में
बड़े टी आर पी वाले चैनलों में ।
महतारी यह नहीं जानती
कि मैं कौन हूँ
जो रच रहा कविता
इनके जीवन पर चुपचाप
लेकिन इससे क्या ?
जानता तो है मन मेरा
पता है मेरी सम्वेदना को भी
कि मैं बेटा हूँ उस खेतिहारिन का
जो भरी दुपहरी
बारहों महीना खेत में
करती निदाई, रोपती धान
सत्तर की उमर में भी ।
मूड़ पर ईंटों की थड़ी लादे
गर में दुधमुँहे को लटकाए
महतारी यह
मेरा कुछ नहीं लगती
पर जीवन के ताग से इसके
मेरी महतारी के जीवन का ताग जुड़ता है ।
यही हू-ब-हू यही चेहरा-मोहरा
मेरी उन बहनों का भी है
जो धमतरी जनपद के
कण्डेल, बोडरा, सिन्धौरी
और सिर्वेे गाँव में
धान रोपती, निंदाई और कटाई करते मिलेंगी
और मिलेंगी
नई उठती इमारतों के ठीये पर
हाड़ तोड़़ मेहनत करती
जाँगर पेरती
छत्तीसगढ़ सहित दुनिया भर में ।।