भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महबूब सा अंदाज़-ए-बयाँ बे-अदबी है / शमीम तारिक़
Kavita Kosh से
महबूब सा अंदाज़-ए-बयाँ बे-अदबी है
मंसूर इसी जुर्म में गर्दन-ज़दनी है
ख़ुद अपने ही चेहरे का तअय्युन नहीं होता
हालाँकि मिरा काम ही आईना-गरी है
आने दो अभी जुब्बा ओ दस्तार पे पत्थर
कुछ काबा-नशीनों में अभी बू-लहबी है
ख़ाली ही रहा दीदा-ए-पुर-शौक़ का दामन
अँधों की अक़ीदत में बसी-उन-नज़री है
हर पाँव से उलझा हूँ कटी डोर के मानिंद
‘तारिक़’ मिरी क़िस्मत की पतंग जब से कटी है