भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महब्बत कर के पछताना पड़ा है / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
Kavita Kosh से
					
										
					
					मुहब्बत कर के पछताना पड़ा है 
ग़मों में ग़र्क हो जाना पड़ा है 
किसी ने मुस्कुरा कर जब भी देखा 
मुझे कुछ देर रुक जाना पड़ा है 
दिल आमादा न था तर्के-वफ़ा पर 
इसे ता देर३ समझाना पड़ा है 
उन्हें आवाज़ दी है जब भी दिल ने 
वो आये हैं उन्हें आना पड़ा है 
शबे-फ़ुर्कत बड़े हीलों से 'रहबर` 
दिले-मुज़्तर को बहलाना पड़ा है
	
	