महरम नहीं है तू ही नवाहाए-राज़ का / ग़ालिब
महरम<ref>जानने वाला,मर्मज्ञ</ref> नहीं है तू ही नवा-हाए-राज़<ref>भेद-भरी आवाज़ें</ref> का
याँ वरना जो हिजाब<ref>पर्दा</ref> है, पर्दा है साज़ का
रंगे-शिकस्ता<ref>उड़ा हुआ रंग</ref> सुबहे-बहारे-नज़ारा है
ये वक़्त है शुगुफ़तने-गुल-हाए-नाज़<ref>अदा रूपी फूलों के खिलने का</ref> का
तू, और सू-ए-ग़ैर<ref>रक़ीब,प्रतिद्वन्द्वी की ओर</ref> नज़र-हाए तेज़-तेज़
मैं, और दुख तेरी मिज़गां-हाए-दराज़<ref>लंबी, गहरी पलकें</ref> का
सरफ़ा<ref>लाभ</ref> है ज़ब्ते-आह में मेरा, वगरना मैं
तोअ़मा<ref>ख़ुराक</ref> हूँ एक ही नफ़से-जां-गुदाज़<ref>घातक सांस, आत्मा पिघलाने वाली सांस</ref> का
हैं बस कि जोशे-बादा<ref>मदिरा की हलचल</ref> से शीशे उछल रहे
हर गोशा-ए-बिसात<ref>गलीचे का कोना</ref> है सर शीशा-बाज़<ref>एक ऐसा मदारी जो शीशे के प्यालों को अपने शरीर पर टिका कर खेल दिखाता है</ref> का
काविश<ref>कुरेदना, खोज</ref> का दिल करे है तक़ाज़ा कि है हनूज़<ref>अभी</ref>
नाख़ुन पे क़रज़ इस गिरहे-नीम-बाज़<ref>अधखुली गाँठ</ref> का
ताराज-ए-काविशे-ग़मे-हिजरां <ref>विरह की पीड़ा की वजह से बरबाद</ref> हुआ 'असद'
सीना, कि था दफ़ीना-ए-गुहर-हाए-राज़<ref>रहस्य के मोतियों का दबा ख़जाना</ref> का