भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महव हूँ मैं जो उस सितम-गर का / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'
Kavita Kosh से
महव हूँ मैं जो उस सितम-गर का
है गिला अपने हाल ए अबतर का
हाल लिखता हूँ जान-ए-मुज़्तर का
रग-ए-बिस्मिल है तार मिस्तर का
आँख फिरने से तेरी मुझ को हुआ
गर्दिश-ए-दहर दौर साग़र का
शोला-रू यार शोला-रंग शराब
काम याँ क्या है दामन-ए-तर का
शौक़ को आज बे-क़रारी है
और वादा है रोज़-ए-महशर का
नक़्श-ए-तस्ख़ीर-ए-ग़ैर को उस ने
ख़ूँ लिया तो मेरे कबूतर का
मेरा ना-कामी से फ़लक को हुसूल
काम है ये उसी सितम-गर का
उस ने आशिक़ लिखा अदू को लक़ब
हाए लिक्खा मेरे मुक़द्दर का
आप से लहज़ा लहज़ा जाते हो
‘शेफ़्ता’ है ख़याल किस घर का