महाकाल के अग्रदूत श्रीरामकृष्णदेव / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
स्मरण तुम्हारा कर देता मन को आन्दोलित,
अन्तर्जग में चिदानन्दमय शब्द तरंगित।
नहीं तुम्हारे कर्म वासना से अनुबन्धित,
परे त्रिगुण से, चिन्मयता के स्वर से छन्दित।
तुम ईश्वर के पूर्ण प्रकाश रूप में कीर्तित,
इस भूतल पर गुरुपद के तुम योग्य प्रतिष्ठित।
ध्यायमान तुम तत्त्व ज्ञान के मंगलकारक,
निज स्वरूप में महिमामण्डित कल्पनियामक।
पृथिवी के दोनों खण्डों को आत्मोदय से,
अनुप्राणित करते तुम कालातीत सत्य से।
हुए अवतरित फिर तुममें अभिनव नर-तन धर,
राम-कृष्ण इस परिवर्त्तनमय मर्त्यपटल पर।
स्वतः प्रकाशित नाम तुम्हारा नित्यबोधमय,
सर्वोत्तम साधन पाने का माया पर जय।
एक साथ मिट्टी-मुद्रा को तुमने लेकर,
किया विसर्जित गंगा के प्रवाह में दुर्धर।
अहंज्ञान को कर विराट में लीन अन्तरित,
अनुसन्धेय अर्थ को तुमने किया अनावृत।
देखा आत्मा में आत्मा को परमगुह्यतम,
खोल चित्रपट चिद्विद्या का भव्य दिव्यतम।
सर्वदेश तुममें, तुम सर्वदेश के भीतर,
दिव्यज्ञान के दीप्तिमान तुम भुवन विभाकर।
लोकातीत, लोकहित में रत, परमानन्दित,
वराभयकरा जगदम्बा के चिन्तन में नित।
गुरुओं का गुरु बना तुम्हारा अपना ही मन,
हुआ तुम्हारे स्वर में नूतन ज्ञानप्रणोदन।
आत्मा का आस्वादन करने के कारण,
घोर त्रिविधदुखतम का तुमने किया निवारण।
मृत्युतिमिर में अमृतज्योति के तुम अभिव्य´्जन,
महाभावासागर के चिन्मय लहरान्दोलन।
कामरागबन्धन को तोड़ सिंह-विक्रम से,
मुक्त हुए तुम दुर्निवार संशय-भ्रम-तम से।
मायामल से रहित, पूजितों से भी पूजित,
नित्य प्रबुद्ध, प्रजागर सेतु सत्य के विस्तृत।
अमृत अंश से आप्यायित रहते तुम प्रमुदित,
निज स्वरूप को एक रूप से करते नियमित।
तुम अध्यात्मतत्वदर्शन के सत्य सनातन
मनोराज्य में लानेवाले युग परिवर्त्तन।
भक्ति-ज्ञान दोनों का तुममें हुआ उन्नयन
चिदाकाश में आत्मदृष्टि की लौ अखण्ड बन।
चमक उठा तुम में अरूप का रूप चिरन्तन,
पहन अर्थ परिधान छन्द का दिव्य विलक्षण।
प्रकट हुए तुमसे गुण जैस गिरिगहवर से-
हंस निकलते गगनमेखला को भर स्वर से।
मननवान तुम ऊर्ध्वभूमिका में समवस्थित,
अद्भुत दिव्योन्माद-दशा में योग विभावित।
रहा सत्य युग का न स्मरण तुममें निवास कर-
सूक्ष्म धर्म को, सगुणभावसीमा से भी पर।
निर्मल चरित तुम्हारा प्रकृति-विकृति से विरहित,
तुमसे लोक प्रकाशित, शक्ति-समुद्र तरंगित।
आत्मक्रीड तुम परमहंस तव पद मर्त्यामृत,
तेजोराशिस्वरूप, मंगलों से संयोजित।
परमसत्य की ओर तुम्हारी दृष्टि नियोजित,
करती आत्मा की गौरव-वाणी को मुखरित।
धर्मभूमि भारत अपनी अन्तर्वेदी पर,
पावन हुआ तुम्हारे श्रीपद को धारण कर।