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महानगर: कुहरा / अज्ञेय
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					झँझरे मटमैले प्रकाश के कन्थे 
जहाँ-तहाँ कुहरे में लटक रहे हैं। 
रंग-बिरंगी हर थिगली  
संसार एक।  
सीली सड़कों पर कहराती ठिलती जाती 
ये अंगार-नैन गाड़ियाँ 
बनाती जाती है आवर्त्त-विवर्त्त 
अनवरत बांध रहीं 
उन अधर-टँके सब संसारों को 
एक कुंडली में, जिस पर 
होगा आसन 
किस निराधार नारायण का?  
ये कितने निराधार नर 
क्षण-भर हर चादर की ओट उझक 
तिर-घिर आते हैं 
एक पिघलती सुलगन के घेरे में: 
ऊभ-चूभ कर 
पुनः डूबने को— 
चादर की ओट 
या कि गाड़ियों की 
अंगार-कगारी तमोनदी में।  
ओ नर! ओ नारायण! 
उभय-बन्ध ओ निराधार!
	
	