महानगर / विपिन चौधरी
महानगरों में बने रहते हैं हम
अपने आपको लगातार ढूँढ़ते हुए
इसके अतिरिक्त भार को अपने कमज़ोर कन्धों पर ढोते
अभिमान से अभिज्ञान तक के लम्बे सफ़र में
बेतरतीब उलझे हुए हम
महानगर की बोझिल धमक हमें
हर क़दम पर साफ़ सुनाई देती है
इसके कँटीले शोर में हम खो गए हैं
फ़िलहाल हम इसके शयनकक्ष में आ चुके हैं
अब यहीं से अपने आप को खोने का पूरा मुआवजा लेंगे
दूर तक बिखरी हुई उदासी से
ख़ुशी के बारीक कणों कों छानते हुए
महानगरों के सताए हुए हम
अपने गाँव-क़स्बों से
बटोर लाई ख़ुशियों को बड़ी कंजूसी से खर्च करते हैं
महानगर के करीब आ कर
हमे बरसों के गठरी किए सपनों कों परे सरका कर
कठोर ज़मीन पर नंगे पाँव चलने की आदत डालनी पड़ी हैं
महानगर के पास ख़बरों का दूर तक
फैला हुआ कारोबार है
जो महीन ख़बरें तुम्हारें पथरीले पैरों तले कुचली जाती है
वही हमारे लिए पीड़ा का सबब बनती है
महानगर
फ्लाई-ओवर के नीचे से गुज़रतें हुए
एक रेडीमेड उदासी हमारे अगल-बगल हो लेती है
लम्बी-चौड़ी इमारतों के ठीक बगल में
अपनी झोपड़ी
हमें अपने फक्कडपन का अहसास दिला देती है
महानगर तुम्हें लांघते हुए चलना
अपने आप कों
बड़ा दिलासा देना है
तुम्हारी चाल बहुत तेज़ है महानगर
लेकिन तुम्हें शायद यह मालूम नहीं
एक समय के बाद
दौड़ते-फाँदते इठलाते खरगोश की
चाल भी मन्द पड़ जाती है