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महानगर : रात / अज्ञेय

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धीरे धीरे धीरे चली जाएँगी सभी मोटरें, बुझ जाएँगी
सभी बत्तियाँ, छा जाएगा एक तनाव-भरा सन्नाटा
जो उस को अपने भारी बूटों से रौंद-रौंद चलने वाले
वर्दीधारी का
प्यार नहीं, किन्तु वाञ्छित है।

तब जो पत्थर-पिटी पटरियों पर इन
अपने पैर पटकता और घिसटता
टप्-थब्, टप्-थब्, टप्-थब्
नामहीन आएगा...
तब जो ओट खड़ी खम्भे के अँधियारे में चेहरे की मुर्दनी छिपाये
थकी उँगलियों से सूजी आँखों से रूखे बाल हटाती
लट की मैली झालर के पीछे से बोलेगी :
'दया कीजिए, जैंटिलमैन...'
और लगेगा झूठा जिस के स्वर का दर्द
क्यों कि अभ्यास नहीं है अभी उसे सच के अभिनय का,
तब जो ओठों पर निर्बुद्धि हँसी चिपकाये
नो सीलन से विवर्ण दीवार पर लगा किसी पुराने
कौतुक-नाटक का फटियल-सा इश्तहार हो,
कुत्तों के कौतूहल के प्रति उदासीन
उस के प्रति भी जिस को तुम ने सन्नाटे की रक्षा पर तैनात किया है,
धुआँ-भरी आँखों से अपनी परछाईं तक बिन पहचाने,
तन्मय-हाँ, सस्ती शराब में तन्मय-
चला जा रहा होगा धीरे-धीरे-
बोलो, उस को देने को है
कोई उत्तर?
होगा?
होगा?
क्या? ये खेल-तमाशे, ये सिनेमाघर और थियेटर?
रंग-बिरंगी बिजली द्वारा किये प्रचारित
द्रव्य जिन्हें वह कभी नहीं जानेगा?

यह गलियों की नुक्कड़-नुक्कड़ पर पक्के पेशाबघरों की सुविधा,
ये कचरा-पेटियाँ सुघड़
(आह कचरे के लिए यहाँ कितना आकर्षण!)
असन्दिग्ध ये सभी सभ्यता के लक्षण हैं
और सभ्यता बहुत बड़ी सुविधा है सभ्य, तुम्हारे लिए!
किन्तु क्या जाने ठोकर खा कहीं रुके वह,
आँख उठा कर ताके और अचानक तुम को ले पहचान-
अचानक पूछे धीरे-धीरे-धीरे
'हाँ, पर मानव
तुम हो किस के लिए?'

स्ट्रैट फर्ड, ऐवन, जून, 1955