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महान नहीं था सिकन्दर / महेश सन्तोषी
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ग्रीक-सभ्यता ने विश्व को, एक वेशकीमती सौगात दी,
जिन्दा रहने का एक वजूद दिया, जिन्दादिली को इज़्ज़त बख़्श दी!
महान थे वे लोग, जिन्होंने ऑलम्पिक्स निकाले,
दुनिया के लोगों को एक नयी ऊर्जा दी,
उमंगों की एक बेमिसाल, मशाल जला दी!
महान नहीं था सिकन्दर, उसने क्या दिया?
पैंतीस देशों पर चढ़ाई की, जहाँ गया,
खून की एक नदी बहा दी!
धन्य हैं वे लोग, जो खेल खेले, जिन्हें खेलते देखने भीड़ उमड़ी, जुटे मेले
जब जीते, खूब जश्न मनाया; हारे, फिर भी हिम्मत नहीं हारी।
कहते हैं, खेलों की एक संस्कृति होती है, एक आत्मा होती है,
यह कितना अच्छा होता, हर साल होते ऑलम्पिक,
हर देश के परचम उड़ते, हम बस दोस्ती याद रखते,
भूल जाते दुश्मनी सारी!