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महायज्ञ / प्रवीन अग्रहरि

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एक यज्ञ हो रहा है,
सृष्टि के मृत्युकाण्ड का महायज्ञ।
हम सब जो पनप रहे हैं,
हमारा जो जीवन है
दरअसल वह मात्र एक मंत्रोच्चारण है।
अंततः 'स्वाहा' के साथ हमारी आहुति दी जाएगी
और हमारी आंतरिक ऊर्जा को
पुनः एक नए मंत्रोच्चारण में बाँध कर
फिर से एक और आहुति के लिए तत्पर किया जाएगा।
यह क्रम चलता रहेगा...
मेरे साथ,
तुम्हारे साथ...
कई युगों से चल रहे
इस महायज्ञ की समाप्ति को
अभी कई युग और बाकी हैं।
समय के अंत में
हम सब की पूर्णाहुति दी जाएगी
और याज्ञिक
इस महायज्ञ का समापन कर के
एक गहरी नींद में चला जाएगा।
फिर शांति छा जाएगी
ठीक वैसे ही
जैसे इस मृत्युकाण्ड के महायज्ञ से पहले हुआ करती थी।
पृथ्वी धधक रही होगी यज्ञ कुंड की बुझी हुई आग से...
तभी ब्रह्माण्ड में कुछ खगोलीय समीकरणों से
बारिश की बूंदे टपकने लगेंगी।
कई वर्षो तक बारिश होगी।
याज्ञिक फिर भी सोता रहेगा।
पृथ्वी ठंडी हो जाएगी...
उसपे पुनः पेड़ लहलहा जाएंगे
और पानी की एक झील में
पुनः एक आहुति की संभावना उत्पन्न होगी।
याज्ञिक जाग उठेगा और जुट जाएगा
फिर से महायज्ञ की तैयारी में।
इस ब्रह्माण्ड की गति में एक लय है।
यहाँ जो हो रहा है,
सब एक बार फिर होगा
और संभवतः एक बार हो चुका है।