महुए की उस इकलौती माला की सौगंध / दयानन्द पाण्डेय
महुए सी महकती मीठी यादों में भी मिलती हो
तो बांहों में ही मिलती हो
यह क्या है
कभी तो अवकाश दो
कि अपने आप से भी मिलूं
तुम्हें याद है
जब एक सुबह महुए के बाग़ में
हमने तुम ने मिल कर महुआ बिना था डलिया भर
लेकिन उस महुए की एक माला गुंथी थी अकेले तुम ने
उसी महुए के पेड़ के नीचे बैठ कर
उस ताज़ा पीले महुए की माला खेल-खेल में
पहना दी थी तुम ने मुझे
वह मेरे गले में आज तक महकती है
उतरी नहीं वह महक आज भी मन से
महुआ सा मदमाता मन लिए मैं खड़ा हूं आज भी
तुम कहां हो
महुआ चू रहा है
डलिया लिए बीन रहा हूं अकेले
लेकिन मुझे माला गूंथने नहीं आता
तुम आओ एक बार फिर से माला गूंथ दो
अब की मैं पहनाऊंगा तुम्हें
और सेलिब्रेट करने के लिए
तुम्हारे मनपसंद हरे चने का होरहा
आग में भून कर तुम्हें फिर खिलाऊंगा
कहोगी तो गेहूं की उम्मी भी आग में भून कर
नमक, मिर्च, लहसुन मिला कर
तुम कहां हो
मह -मह महकती
यह आम्र मंजरियां
अपने भीतर दूध भरती और खुद को पकाती
यह गेहूं की बालियां
तुम्हारे रूप की तरह गदराई
यह अरहर की लदी - फनी छम-छम बजतीं छीमियां
इन के बीच से गुज़रता हुआ मैं अकेला
यह सब की सब पूछती हैं
तुम कहां हो
इन सब की सौगंध है
महुए की उस इकलौती माला की सौगंध है
आ जाओ
अब और मत भरमाओ
खेल-खेल में ही सही गौरैया सी फुदकती हुई
बांस के कइन की तरह लपती हुई
महुआ बारी की इस बहार में
आ जाओ
महुए सी महकती मीठी यादों में समा जाओ
हरसिंगार सा अनगिन रंग और उमंग लिए
तुम्हें अपने हाथ से बीना हुआ महुआ खिलाऊंगा
आ जाओ
तुम कहां हो
[19 मार्च, 2015]