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माँ-बापू को आघात पहुँचाने की इच्छा / श्रीजात वन्द्योपाध्याय / अनिल जनविजय
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मन करता है कभी-कभी यह,
माँ-बापू को पहुँचाऊँ आघात ।
पूरे-पूरे दिन ऊँघते रहते हैं
और अक्सर झपकी लेते हैं वे ।
और जागते हैं जब
मछली के सूप और दूध की चिन्ता करते हैं तब ।
कभी-कभी चीख़ते-चिल्लाते हैं
और एक-आध बार तो झपटे भी एक-दूसरे पर ।
आख़िर कब तक
कब तक सहन किया जाए यह सब ?
मैं सोचता हूँ — कैसे उनकी गरदनें पकड़
घसीट ले जाऊँ बाहर जब बाज़ार जाऊँ
फिर सोचता हूँ — चलो छोड़ो, मज़ा करने दो उन्हें ।
आख़िर वे बिल्लियाँ तो हैं नहीं, मेरे माँ-बापू हैं
कहीं ऐसा न हो कि वे घर वापसी का रास्ता ही भूल जाएँ ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय